सीनों में इरादे, लब पे नारा-ए-इंक़लाब लिए
चल पड़े हैं हम सड़कों पर नया ख़्वाब लिए
अब न रोको हमें हम नहीं रुकने वाले
हाथ आवाम के भी अब नहीं झुकने वाले
हमको मालूम है हुक्मरान का ‘वादा’ क्या है
हम तो दीवाने हैं और हमें काम ही क्या है?

तुम हमें लूटते रहो और हम बैठे ही रहें
ऐसे भी बुत नहीं हम कि सहते ही रहें
लोग जो ख़ामोश हैं उन्हें भी बोलना होगा
ज़मीर को अपने एक बार टटोलना होगा
हमको न बतलाओ जंग-ए-हुक़ूक़ क्या है
हम तो दीवाने हैं और हमें काम ही क्या है?

ऐ बड़ी इमारतों में बैठी हुई छोटी सी सोच
तेरे चलने से मुल्क के पाँव में आई है मोच
ग़रीबों का जुलूस अमीरों का कारवां उतरेगा
अब तो हिन्दू उतरेगा और मुसलमां उतरेगा
हमको ये इल्म है कि मानी-ए-इत्तेहाद क्या है
हम तो दीवाने हैं और हमें काम ही क्या है?

तुम हमें बताओ कब हम बोलें क्या बोलें
तुम कहो तो हँस लें तुम कहो तो रो लें
आग तुमने फैलाई नाम पर हमारा दो
बंदूक तान हमपे क़त्ल का इशारा दो
हम भी देखें ज़रा सियासत का नशा क्या है
हम तो दीवाने हैं और हमें काम ही क्या है?

बढ़ रहे हैं मशाल से औरत, बूढ़े और बच्चे
बढ़ रहे हैं आगे हैं जितने वतनपरस्त सच्चे
रुक नहीं सकती है ये आंधी बढ़ती जाएगी
दरख़्त सारे गद्दानशीनों के गिराती जाएगी
हम भी जानते हैं ज़ुल्म की इन्तेहा क्या है?
हम तो दीवाने हैं और हमें काम ही क्या है?

-सैय्यद फ़ारूक़ जमाल

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